गुरुवार, 27 अगस्त 2020

मुर्दाहिया (Murdahiya) आत्मकथा का सारांश NET/JRF परीक्षा 2020

पुस्तक परिचय - 

मुर्दाहिया डॉ. तुलसीराम की आत्मकथा है जिसका प्रकाशन 2010 मे हुआ है। तुलसीराम की आत्मकथा का दूसरा भाग 'मणिकर्णिका' शीर्षक से 2014 मे आया था।


मुर्दाहिया मूलतः दलित आत्मकथा के रूप में हिन्दी साहित्य में विशिष्ट रूप से पहचाना जाता है। इसके लेखक डॉ. तुलसीराम इसे अपने जीवन-कथा की सच्ची और अनुभूतिमय प्रस्तुति कहते है।


लेखक के अनुसार 'मेरे भीतर से मुर्दाहिया को खोद खोदकर निकालने का काम तद्भव के संपादक अखिलेश ने किया है'। अर्थात लेखक को मुर्दाहिया लिखने की प्रेरणा अखिलेश के अनुरोध पर जगी।


मुर्दाहिया आज़मगढ़ जनपद में स्थित लेखक के गांव धरमपुर के श्मशान घाट का नाम है, जो दलितों की कर्मस्थली है। मुर्दाहिया में लेखक ने अपने बचपन से लेकर इंटर की शिक्षा तक की जीवन यात्रा का क्रमबद्ध ब्यौरा दिया है।


मुर्दाहिया पुस्तक के खंड/भाग/उपशीर्षक

1. भूतही पारिवारिक पृष्ठभूमि

2. मुर्दाहिया तथा स्कूली जीवन

3. अकाल में अंधविश्वास 

4. मुर्दाहिया के गिद्ध तथा लोकजीवन

5. मुर्दाहिया के गिद्ध तथा लोकजीवन 

6. भूतनिया नागिन

7. चले बुद्ध की राह

8. आज़मगढ़ में फाकाकशी




मुर्दाहिया के प्रमुख पात्रों का परिचय 

1.धीरजा-लेखक की मां, साधारण ग्रामीण घरेलूस्त्री 

2. जूठन- लेखक के दादाजी, जिन्हें अंधविश्वास के अनुसार किसी भूत ने पीट-पीटकर मार डाला था। 

3. मुसड़िया-शतायु अवस्था में जीवित लेखक की दादी 

4. सोम्मर- लेखक के पिता के सबसे बड़े भाई जो 112 गांवों के चमारों के चौधरी है। 

5. मुन्नेसर काका- लेखक के पिता के दूसरे नंबर के भाई, 'शिवनारायण पंथी' धर्मगुरु 

6. नग्गर काका- लेखक के पिता के तीसरे भाई, लेखक इनसे बहुत भयभीत रहता रहते है क्योंकि इनका स्वभाव गुस्सैल और हिंसक है। ये भी 'शिवनारायणपंथी' धर्मगुरु है। 

7. मुन्नर काका- लेखक के पिता के सबसे छोटे भाई। स्वभावतः परिवार के अन्य पुरुष सदस्यों की तुलना में सहज और सामन्जस्यवादी चरित्र तथा पूरे संयुक्त परिवार के मुखिया। 

8. मुन्शी रामसूरत - लेखक के प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक और घोर जातिवादी 

9. परशुराम सिंह - प्रधान अध्यापक (हेड मास्टर) 

10. संकठा सिंह - प्राथमिक विद्यालय में लेखक का घनिष्ठ मित्र 

11. किसुनी भौजी तथा सुभागिया- नवविवाहित स्त्रियाँ जो अपने ग्राहस्थिक तथा वैवाहिक दुखों को चिट्टी के द्वारा दूसरे प्रदेशों में मजदूरी के लिए गये अपने पतियों तक भेजती थी। चिट्टी लेखन और पठन का काम लेखक अर्थात बालक तुलसीराम का होता था। 

12. करपात्री महाराज- हिन्दू कोड बिल के विरोधी और रामराज्य पार्टी के नेता 

13. सुग्रीव सिंह - लेखक के शिक्षक जो स्वयं गोरखपुर विश्वविद्यालय से स्नातक पास करके आये थे तथा हिंदी पढ़ाते। लेखक को पढ़ाई के लिए प्रोत्साहित करते रहते। 

14. रामधन- आज़मगढ़ के दलित नेता 

15. तपसीराम- लेखक को उच्च शिक्षा के लिए BHU संस्थान की सलाह देते हैं और वही पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। 

16. अरुण सिंह - आजमगढ़ के कम्युनिस्ट नेता तथा बाद के जीवन के घनिष्ट मित्र 

17. जेदी काका- अँग्रेजों ने दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान इन्हें जबरन युद्घ लड़ने के लिए उठा ले गए थे। 

18. देवराज सिंह- बस्ती जनपद का युवक जो आजमगढ़ में लेखक के साथ पढ़ता है और मित्र भी है परंतु लेखक की छात्रवृत्ति आने पर वह चाकू के बल पर आधे रुपये जबरन ले लेता है। 


सारांश- मुर्दहिया डॉ तुलसीराम की आत्मकथा है जो उनके जन्मस्थान आजमगढ़ के धरमपुर नामक एक गांव का श्मशान घाट है। लेखक का जन्म चमार जाति में हुआ जिसके कारण दलित होने का सामाजिक दुख तो झेलना ही पड़ा परंतु चेचक की आपदा से लेखक को अपनी दायीं आंख खोना उन्हें 'अपशकुन' की श्रेणी में पटक देता है। लोगों के द्वारा अपशगुन बना देना तथा 'कनवा बड़ा तेज हौ' या 'एक फाटक बंद है' जैसी टिप्पणियां लेखक को वेदना से भर देती हैं। लेखक ने अपने परिवार और समाज में व्याप्त घोर अंधविश्वास तथा उससे उपजा शोषणचक्र का विस्तार से जिक्र किया है। लेखक को जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ता है। कई बार लेखक को अपनी पढ़ाई के लिए अपने ही घर में 'कामचोरी' करने के आक्षेप का सामना करना होता है। परिवार में एकमात्र सदस्य लेखक की दादी है जिनका स्नेह और सम्बल लेखक को बार-बार अवलंबन प्रदान करता। लेखक ने अपने गांव परिवार की गरीबी, दलितों की स्थिति, उनके रहन-सहन, खान-पान, त्यौहार आदि  पर विस्तार पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। अकाल के दौरान भुखमरी और दलितों की सूक्ष्म जिजीविषा का मर्मस्पर्शी चित्रण लेखक के द्वारा किया गया है। 

'मुर्दाहिया' में लेखक की स्कूली शिक्षा गाँव के विद्यालय तथा आजमगढ़ कस्बे से इंटर तक की पढ़ाई के दौरान शैक्षिक-आर्थिक संकटों तथा संघर्षों का क्रमबद्ध दस्तावेज़ है। 


मह्त्वपूर्ण पंक्तियाँ - 

"हमारे गांव की 'जियो-पोलिटिक्स' यानी' 'भू-राजनीति' में दलितों के लिए मुर्दहिया एक सामरिक केंद्र जैसी थी।"


"मूर्खता मेरी जन्मजात विरासत थी।"

"उस समय गांव में दलितों के अलग देवी-देवता होते थे। जिनकी पूजा सवर्ण नहीं करते थे। हमारे गांव में' चमरिया माई' और 'डीह बाबा' दो ऐसे ही देवी-देवता थे, जिनकी पूजा दलित करते थे।"


" तमाम दलित लड़कों को रावण की सेना में विभिन्न राक्षसों की भूमिका दी जाती थी। हम राक्षस बने रामलीला में रोज मरते थे।" 


" पढ़ाई के दृष्टिकोण से हेड मास्टर परशुराम सिंह मेरे सबसे बड़े प्रेरणास्रोत थे। वे हमेशा कक्षा में मेरी प्रशंसा करते और जब ज्यादा खुश होते तो कहते: ई चमरा एक दिन हमरे स्कूल क इज्जत बढ़ई।" 


"आज जब मैं अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक बड़े सेंटर का प्रोफ़ेसर व अध्यक्ष बन चुका हूं तो यह स्वीकारने में गर्व होता है कि इसके पीछे मेरी प्रेरणा के असली जनक वो तीन गरीब मजदूर थे, जिन्होंने मुझे छोटी उम्र में अंतरराष्ट्रीय राजनीति की तरफ अनजाने ही खींचा था। इनमें एक थे सोवियत संघ के 'समोहीखेती' वाले मुन्नर चाचा, दूसरे डांगे को 'डंगरिया' कहने वाले सोनई तथा तीसरे थे, दढियल जेदी चाचा।"


" इस क्षेत्र में स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व तेज बहादुर सिंह नामक एक प्रख्यात कम्युनिस्ट नेता ने किया था। उन्होंने वर्षों तक भूमिगत रहकर काम किया था। इस पूरे क्षेत्र पर उनका विशेष प्रभाव था।" 


"बाद में बाबा हरिहर दास ने बताया कि स्वामी करपात्री जी देश में 'रामराज' लाने के लिए काम कर रहे है। जाहिर है कि पार्टी 'रामराज्य परिषद' चुनाव मैदान में उतरी थी।"


"मतदान बंद होने के बाद मैं अपने पिता तथा मां के साथ वापस घर आ रहा था, तो पिताजी ने मुझे बताया कि बाबा हरिहर दास ने उन्हें दो रुपया दिया है, इसलिए उन्होंने 'रामराज' को वोट दे दिया।" 


"सिद्धार्थ को वैराग्य हुआ और वे सच्चे ज्ञान की तलाश में एक दिन रात के समय घोड़े पर चढ़कर महल से भाग निकल।"


"हाईस्कूल के आगे ज्ञान की तलाश मुझे भी करनी थी, इसलिए गौतम बुद्ध अत्याधिक प्रिय लगने लगे। निकट भविष्य में मेरा घर से भगाना निश्चित हो गया।"

"सबसे बड़ा संकट यह था कि उन दिनों जो वजीफा मिलता था, वह कम से कम छह महीने बाद। इस बीच एक बार फिर संकटमोचन के रूप में मेरे समाने वहीं हिन्दी अध्यापक सुग्रीव सिंह प्रस्तुत हुए। उन्होंने मुझे तीस रुपये दिए और कहा कि आज़मगढ़ जाकर पढ़ाई जारी रखूं।"

"धीरे-धीरे पता चलने लगा कि आजमगढ़ का यह डी.ए.वी कालेज संपूर्ण रूप से RSS के अधीन था।"



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