सोमवार, 1 अप्रैल 2019

आषाढ़ का एक दिन : कथासार

तीन अंकों में 'आषाढ़ का एक दिन नाटक की रचना की गयी है। प्रथम अंक के आरंभ में छाज से धान फटकती हुर्इ अंबिका के दर्शन होते हैं। तभी वर्षा में भीगकर आई  का  मल्लिका प्रवेश होता है। दोनों के वार्तालाप से ज्ञात होता है कि मलिलका अंबिका की पुत्राी है। मलिलका ने कालिदास के साथ आषाढ़ की पहली बरसात में भीगने का आनंद उठाया है इसलिए वह अपने इस सौभाग्य पर मुग्ध है। परंतु अंबिका को मलिलका का यह आचरण अनुचित प्रतीत होता है- वैयकितक स्तर पर भी और सामाजिक स्तर पर भी। वह कालिदास को नापसंद करती है क्योंकि वह भावनाओं में निमग्न रहने वाला एक अव्यावहारिक व्यकित है जिससे यह आशा करनी व्यर्थ है कि वह मलिलका को किसी प्रकार का सांसारिक सुख दे पायेगा। सामाजिक स्तर पर वह उन दोनों से इसलिए क्रुद्ध है क्योंकि प्रेमी युगल का विवाह से पूर्व इस प्रकार घूमना-फिरना लोकापवाद का कारण हो सकता है। उन दोनों के वाद-विवाद के बीच ही कालिदास भी आते है। उन्हें किसी राजपुरुष के बाण से आहत हरिण शावक के प्राण-रक्षा की चिंता है। राजपुरुष दंतुल भी अपने उस शिकार को खोजते हुए वहाँ पहँुच जाते हैं। कालिदास और दन्तुल में वाद-विवाद होता है। दन्तुल अपने राजपुरुष होने के दर्प में चूर है परंतु जब उसे ज्ञात होता है कि जिस व्यकित से वह तर्क-वितर्क कर रहा था वह प्रसिद्ध कवि कालिदास हैं तो उसका स्वर और भावभंगिमा तुरंत बदल जाती है। वह उनसे क्षमा माँगने को भी तैयार है क्योंकि सम्राट चंद्रगुप्त के आदेश पर वह उन्हीं को लेने तो वहाँ आया था। इस सूचना से ही कालिदास को राजकीय सम्मान का अधिकारी समझा गया है मलिलका प्रसन्न हो जाती है, परंतु अमिबका पर मानो इस सबका कोर्इ प्रभाव ही नहीं पड़ता। दोनों एक दूसरे को अपना दृषिटकोण समझाने का प्रयास करती हैं, तभी मातुुल का आगमन होता है। मातुल कालिदास के संरक्षक हैं पर उनकी भाँति भावुक नहीं वरन अति व्यावहारिक। वे राजकीय सम्मान के इस अवसर को किसी भी प्रकार खोना नहीं चाहते। कालिदास की उदासीनता से भी वे नाराज हैं। निक्षेप कालिदास की मन:सिथति को समझता है परंतु इस अवसर को खोने के पक्ष में वह भी नहीं है इसलिए वह मलिलका से अनुरोध करता है कि वह कालिदास को समझाये। इसी अंक में विलोम का भी प्रवेश होता है। उसकी बातों से ज्ञात होता है कि वह मलिलका से प्रेम करता है। वह यह भी जानता है कि मलिलका कालिदास को चाहती है और उसके जीवन में विलोम का कोर्इ स्थान नहीं। वस्तुत: ऐसा स्वाभाविक भी है क्योंकि उसका व्यकितत्व कालिदास के व्यकितत्व से नितान्त विपरीत है। कालिदास के इस सम्मान से वह थोड़ा दु:खी दिखार्इ देता है जिसकी अभिव्यकित उसक  व्यंग्यपूर्ण कटाक्षों से होती है। उसके कारण कर्इ हैंµएक उसके मन का र्इष्र्या-भाव है। कालिदास को वह अपने प्रतिद्वंद्वी की भाँति ग्रहण करता है और उसे लगता है कि इस प्रतिद्धंद्विता में कालिदास का स्थान उससे ऊपर हो गया है। दो, वह कालिदास और मलिलका के पारस्परिक स्नेह-भाव को भलीभाँति समझता है। वह जानता है कि कालिदास के चले जाने से मलिलका दु:खी हो जायेगी और मलिलका का दु:ख उसे असहाय है। तीन, उसे आशंका है कि उज्जयिनी का नागरिक वातावरण, राज्य सत्ता की सुख-सुविधाएँ, आमोद-प्रमोद में कालिदास जैसा व्यकितत्व कहीं खो न जाये, उसकी रचनाशीलता को कोर्इ क्षति न पहुँचे, विलोम के मन में जो शंका है वही कालिदास के मन में भी है। उज्जयिनी जाने-न-जाने की दुविधा का कारण यही श्ांका है। परंतु मलिलका के मन में इस प्रकार की कोर्इ शंका नहीं। उसे कालिदास की प्रतिभा पर विश्वास है। यहाँ रोक कर वह उसे स्थानीय कवि नहीं बने रहने देना चाहती। उज्जयिनी जाकर उसके अनुभवों में विस्तार हो, राजकीय सुख-सुविधाओं के बीच अपने अभावों को भूल कर साहित्य-रचना में वह लीन हो जाए, उसकी कीर्ति दूर-दूर तक फैले भले ही इसके लिए उसे कालिदास का वियोग क्यों न सहना पड़ेµइसी अभिलाषा से वह कालिदास को उज्जयिनी जाने के लिए मना लेती है।दूसरा अंक कालिदास के जाने से कुछ वषो± बाद का है। घर की साज सज्जा में आये परिवर्तन और अव्यवस्था से इस अंतर के संकेत मिल जाते हैं। अमिबका अस्वस्थ है और मलिलका को आर्थिक अभावों की पूर्ति के लिए काम करना पड़ रहा है। मलिलका और निक्षेप के वार्तालाप से यह स्पष्ट होता है कि वह आज भी कालिदास से उसी प्रकार जुड़ी है। राजधानी से आने जाने वाले व्यवसायियों के माध्यम से वह उनकी रचनाओं को पढ़ती रही है। उसे यह संतोष भी है कि उसके स्नेह और आग्रह के कारण ही कालिदास राजधानी जाने के लिए तैयार हुए थे। अत: वह उनकी उपलबिध में कहीं स्वयं भी भागीदार हैं। निक्षेप से बातचीत से ही इस बात की भी सूचना दी गयी है कि कालिदास अब पहले वाले कालिदास नहीं रहे गये हैं। वहाँ के वातावरण के अनुरूप अब वे सुरा और सुंदरी में मग्न रहने लगे हैं, गुप्त साम्राज्य की विदुषी राजकुमारी से उन्होंने विवाह कर लिया है, अब काश्मीर का शासन भार भी वे सँभालने वाले हैं और इसी यात्राा के बीच वे अपने इस ग्राम प्रांतर में भी कुछ समय के लिये रुकेंगे, उनका नया नाम अब मातृगुप्त है, 'ऋतु संहार के बाद वे और भी अनेक काव्यों-नाटकों की रचना कर चुके हैं, सारा गाँव आज उनके स्वागत की तैयारी कर रहा है। तभी राजसी वेशभूषा में एक घुड़सवार के दर्शन निक्षेप को होते हैं। उसे विश्वास है कि वह राजपुरुष और कोर्इ नहीं बलिक स्वयं कालिदास ही हैं। यह सूचना मलिलका को विचलित कर देती है। तभी रंगिणी-संगिणी का प्रवेश होता है। ये दोनों नागरिकाएँ कालिदास के परिवेश पर शोध करना चाहती हैं पंरतु उनका काम करने का ढंग अत्यंत हास्यास्पद और सतही है। वे मलिलका से उस प्रदेश की वनस्पतियों, पशु-पक्षियों, दैनिक जीवन मे उपयोग में आने वाली वस्तुओं और विशिष्ट अभिव्यकितयों के विषय में प्रश्न करती हैं। परंतु कुछ भी असाधारण न दिखार्इ देने से निराश हो कर लौट जाती हैं। उनके जाते ही अनुस्वार और अनुनासिक नामक दो राज-कर्मचारी आते हैं। कालिदास की पत्नी और राजपुत्राी प्रियंगुमंजरी के आगमन की तैयारी में वे मलिलका के घर की व्यवस्था में कुछ ऐसा परिवर्तन करना चाहते हैं जो राजकुमारी के गौरव के अनुरूप हो और सुविधाजनक भी हो। परन्तु वास्तव में वे व्यवस्था-परिवर्तन का नाटक भर करते हैं और बिना कोर्इ बदलाव किये वहाँ से चले जाते हैं। फिर मातुल के साथ प्रियगुमंजरी का आगमन होता है। वह जानती है कि मलिलका कालिदास की प्रेयसी है और कालिदास के मन में उसके लिए अथाह स्नेह और सम्मान है। उसे मालूम है कि कालिदास की समस्त रचनाओं की प्रेरणा स्रोत मलिलका और यह परिवेश ही है। अत: स्त्राी-सुलभ जिज्ञासा और र्इष्र्या के फलस्वरूप वह इस प्रदेश में आने और मलिलका को देखने का लोभ संवरण कर पाती है। उसे आश्चर्य होता है कि राजधानी से इतनी दूर होने पर भी मलिलका ने कालिदास की सभी रचनाएँ प्राप्त कर ली हैं, पढ़ ली हैं। अब कालिदास को मातृगुप्त के नाम से जाना जाता है अत: मलिलका का 'कालिदास संबोधन उसे आपत्तिजनक लगता है। वह मलिलका के घर का परिसंस्कार करना चाहती है और उसकी इच्छा है कि मलिलका किसी राजकर्मचारी से विवाह कर ले, उसके साथ उसकी संगिनी बन कर रहे। वहाँ की वनस्पतियों, पत्थरों, कुछ पशु-पक्षियों ओर कुछ गरीब बच्चों को अपने साथ ले जाना चाहती है जिससे कालिदास को राजसुख में रहते हुए भी कभी अपने परिवेश का वियोग न खटके मलिलका घर के परिसंस्कार और विवाह के प्रस्ताव को अस्वीकार कर देती है। प्रियगुमंजरी का वियोग न खटके। मलिलका घर के परिसंस्कार और विवाहके प्रस्ताव को अस्वीकार कर देती है। प्रियगुमंजरी हतप्रभ सी होकर वहाँ से चली जाती है। उसके जाने के बाद विलोमभीआताहै। इस सारे घटनाचक्र से वह भी परिचित है। वह इस आशा से वहाँ आता है कि कालिदास यदि वहाँ आये तो वह उसकी वास्तविकता, उसके व्यकितत्व में आये परिवर्तन को सबके सम्मुख उजागर कर दे। यधपि वह जानता है कि कालिदासवहाँनहीं आयेगा। कालिदास के मलिलका से बिना मिले चले जाने से अमिबका और विलोम-दोनों की आशंकाएँ सत्य सिद्ध होती हैं।तीसरे अंक में कुछ और वषो के बाद की घटनाएँ हैं। इस बार अंबिका दिखार्इ नहीं देती। वहाँ है पालने में लेटा एक शिशु जो मलिलका के अभाव की संतान है। घर की अस्त-व्यस्त और जीर्ण-शीर्ण सिथति मलिलका के दु:खों की कहानी कह रहेहैं। इस बार फिर आषाढ़ का पहला दिन है पहले की भाँति इस बार भीमूसलाधार वर्षा हो रही है। परंतु इस बार उस वर्षा का आनंद उठाने की सिथति मलिलका की नहीं है। मातुल भीगता हुआ आता है। जिस वैभव और सत्ता-सुख की लालसा से वह उज्जयिनी गया था, वह लालसा तो पूरी हुर्इ किंतु उस सबसे मातुल का मोह भी भंग हुआ है। चिकने शिलाख्ांडों से बने प्रासाद, आगे-पीछे चलते प्रतिहारी, कालिदास का संबंधी होने के नाते अकारण मिलने वाला सम्मान शुरू में तो बहुत आÑष्ट करता है परंंतु धीरे-धीरे इस सबसे वह ऊबने लगता है। वह सूचना देता है कि कालिदास ने काश्मीर का शासन भार त्याग कर संन्यास ग्रहण कर लिया है। मातुल के चले जाने के पश्चात इसी अंक में कालिदास का प्रवेश होता है। प्रथम अंक में जिस तेजस्वी कालिदास के दर्शन होते हैं और दूसरे अंक में जिसकी प्रतिभा, योग्यता और यश की चर्चा है, इस तीसरे अंक में उसके विपरीत भग्नâदय-विवश कालिदास दिखाई देते हैं। इस अंक में कालिदास का लंबा आत्मवक्तव्य है। वह बताता है कि यहाँ से जाने के बाद वह सुख-सुविधाओं आमोद-प्रमोद, साहित्य-सृजन में व्यस्त भले ही रहा हो परंतु कभी भी अपने ग्रामप्रांतर और मलिलका से अलग नहीं हुआ। अपने पुराने अनुभवों को ही वह बार-बार अनेक रूपों में पुन: सृजित करता रहा है। जिन लोगों ने सदा उसका तिरस्कार किया था, उपहास किया था उनसे प्रतिशोध लेने की कामना से ही उसने काश्मीर के शासन का दायित्व वहन किया था। परंतु अब वह इस कृत्रिम जीवन से थक चुका है। अत: शासक मातृगुप्त के कलेवर से संन्यास लेकर वह पुन: कालिदास के कलेवर में लौट आया है। अब वह यहीं इस पर्वत प्रदेश में ही रहना चाहता है, मलिलका के साथ अपने जीवन का पुनरारंभ करना चाहता है। इस बातचीत के बीच-बीच में दरवाजे पर दस्तक होती रहती है परंतु मलिलका दरवाजा नहीं खोलती। इस वक्तव्य के दौरान उसे एक बार भी यह विचार नहीं आता कि उसके उज्जयिनी जाने और वहाँ से वापिस आने की दीर्घ अवधि में मलिलका को किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा होगा। उसके जीवन की दिशा भी बदल सकती है यह तो वह सोच ही नहीं पाता। सहसा अंदर बच्ची के रोने की आवाज और विलोम के प्रवेश से उसे वस्तुसिथति का बोध होता है। अब उसे अनुभव होता है कि इच्छा और समय के द्वंद्व में समय अधिक शकितशाली सिद्ध होता है और समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। वह वहाँ से चला जाता है और यहीं नाटक समाप्त हो जाता है।


सोमवार, 11 मार्च 2019

सिक्का बदल गया- कृष्णा सोबती

कृष्णा सोबती की कहानियों में सर्वाधिक चर्चित एवं प्रसिद्ध कहानी'सिक्का बदल गया'  का प्रकाशन अज्ञेय द्वारा सम्पादित पत्रिका'प्रतीक' में 1948 ई. में हुआ।



खद्दर की चादर ओढ़ेहाथ में माला लिए शाहनी जब दरिया के किनारे पहुंची तो पौ फट रही थी। दूर-दूर आसमान के परदे पर लालिमा फैलती जा रही थी। शाहनी ने कपड़े उतारकर एक ओर रक्खे और'श्रीरामश्रीरामकरती पानी में हो ली। अंजलि भरकर सूर्य देवता को नमस्कार कियाअपनी उनीदी आंखों पर छींटे दिये और पानी से लिपट गयी!
चनाब का पानी आज भी पहले-सा ही सर्द थालहरें लहरों को चूम रही थीं। वह दूर सामने काश्मीर की पहाड़ियों से बर्फ़ पिघल रही थी। उछल-उछल आते पानी के भंवरों से टकराकर कगारे गिर रहे थे, लेकिन दूर-दूर तक बिछी रेत आज न जाने क्यों ख़ामोश लगती थी ! शाहनी ने कपड़े पहनेइधर-उधर देखाकहीं किसी की परछाई तक न थी। पर नीचे रेत में अगणित पांवों के निशान थे। वह कुछ सहम-सी उठी !
आज इस प्रभात की मीठी नीरवता में न जाने क्यों कुछ भयावना-सा लग रहा है। वह पिछले पचास वर्षों से यहां नहाती आ रही है। कितना लम्बा अरसा है! शाहनी सोचती हैएक दिन इसी दुनिया के किनारे वह दुलहिन बनकर उतरी थी। और आज...आज शाहजी नहींउसका वह पढ़ा-लिखा लड़का नहींआज वह अकेली हैशाहजी की लम्बी-चौड़ी हवेली में अकेली है। पर नहीं यह क्या सोच रही है वह सवेरे-सवेरे! अभी भी दुनियादारी से मन नहीं फिरा उसका ! शाहनी ने लम्बी सांस ली और 'श्री रामश्री राम', करती बाजरे के खेतों से होती घर की राह ली। कहीं-कहीं लिपे-पुते आँगनों पर से धुआँ उठ रहा था। टनटन बैलोंकी घंटियाँ बज उठती हैं। फिर भी...फिर भी कुछ बंधा-बंधा-सा लग रहा है। 'जम्मीवालाकुआँ भी आज नहीं चल रहा। ये शाहजी की ही असामियाँ हैं। शाहनी ने नज़र उठायी। यह मीलों फैले खेत अपने ही हैं। भरी-भरायी नई फ़सल को देखकर शाहनी किसी अपनत्व के मोह में भीग गयी। यह सब शाहजी की बरकतें हैं। दूर-दूर गाँवों तक फैली हुई ज़मीनेंज़मीनों में कुएँ सब अपने हैं। साल में तीन फ़सलज़मीन तो सोना उगलती है। शाहनी कुएँ की ओर बढ़ीआवाज़ दी, ''शेरेशेरेहसैना, हसैना...।''
शेरा शाहनी का स्वर पहचानता है। वह न पहचानेगा ! अपनी माँ जैना के मरने के बाद वह शाहनी के पास ही पलकर बड़ा हुआ। उसने पास पड़ा गंडासा 'शटालेके ढेर के नीचे सरका दिया। हाथ में हुक्का पकड़कर बोला''ऐ हैसैना-सैना...।''  शाहनी की आवाज़ उसे कैसे हिला गयी है ! अभी तो वह सोच रहा था कि उस शाहनी की ऊँची हवेली की अंधेरी कोठरी में पड़ी सोने-चांदी की सन्दूक़चियाँ उठाकर...कि तभी 'शेरे शेरे...। शेरा ग़ुस्से से भर गया। किस पर निकाले अपना क्रोधशाहनी पर ! चीख़कर बोला, ''ऐ मर गयीं एँ एब्ब तैनू मौत दे।''
हसैना आटेवाली कनाली एक ओर रखजल्दी-जल्दी बाहिर निकल आयी, ''ऐ आयीं आँ क्यों छावेले (सुबह-सुबह) तड़पना एँ?''
अब तक शाहनी नज़दीक पहुँच चुकी थी। शेरे की तेज़ी सुन चुकी थी। प्यार से बोली, ''हसैनायह वक़्त लड़ने का हैवह पागल है तो तू ही जिगरा कर लिया कर।''
''जिगरा !'' हसैना ने मान भरे स्वर में कहा, ''शाहनीलड़का आख़िर लड़का ही है। कभी शेरे से भी पूछा है कि मुँह अंधेरे ही क्यों गालियाँ बरसाई हैं इसने?'' शाहनी ने लाड़ से हसैना की पीठ पर हाथ फेराहँसकर बोली, ''पगली, मुझे तो लड़के से बहू प्यारी है ! शेरे।''
''हाँ, शाहनी !''
''मालूम होता हैरात को कुल्लूवाल के लोग आये हैं यहाँ?'' शाहनी ने गम्भीर स्वर में कहा।
शेरे ने ज़रा रुककरघबराकर कहा, ''नहीं शाहनी...'' शेरे के उत्तर की अनसुनी कर शाहनी ज़रा चिन्तित स्वर से बोली, ''जो कुछ भी हो रहा हैअच्छा नहीं। शेरेआज शाहजी होते तो शायद कुछ बीच-बचाव करते। पर...'' शाहनी कहते-कहते रुक गयी। आज क्या हो रहा है। शाहनी को लगा जैसे जी भर-भर आ रहा है। शाहजी को बिछुड़े कई साल बीत गयेपरपर आज कुछ पिघल रहा है शायद पिछली स्मृतियाँ...आँसुओं को रोकने के प्रयत्न में उसने हसैना की ओर देखा और हल्के-से हँस पड़ी। और शेरा सोच ही रहा हैक्या कह रही है शाहनी आज! आज शाहनी क्याकोई भी कुछ नहीं कर सकता। यह होके रहेगा, क्यों न होहमारे ही भाई-बन्दों से सूद ले-लेकर शाहजी सोने की बोरियां तोला करते थे। प्रतिहिंसा की आग शेरे की आँखों में उतर आयी। गंड़ासे की याद हो आयी। शाहनी की ओर देखा नहीं-नहींशेरा इन पिछले दिनों में तीस-चालीस क़त्ल कर चुका है, पर पर वह ऐसा नीच नहीं...सामने बैठी शाहनी नहींशाहनी के हाथ उसकी आँखों में तैर गये। वह सर्दियों की रातें कभी-कभी शाहजी की डाँट खाके वह हवेली में पड़ा रहता था। और फिर लालटेन की रोशनी में वह देखता हैशाहनी के ममता भरे हाथ दूध का कटोरा थामे हुए ''शेरे-शेरेउठपी ले।'' शेरे ने शाहनी के झुर्रियाँ पड़े मुँह की ओर देखा तो शाहनी धीरे से मुस्करा रही थी। शेरा विचलित हो गया। ''आख़िर शाहनी ने क्या बिगाड़ा है हमारा?'' शाहजी की बात शाहजी के साथ गयीवह शाहनी को ज़रूर बचाएगा। लेकिन कल रात वाला मशवरा! वह कैसे मान गया था फ़िरोज़ की बात ! ''सब कुछ ठीक हो जाएगा सामान बाँट लिया जाएगा !''
''शाहनी, चलो तुम्हें घर तक छोड़ आऊँ !''
शाहनी उठ खड़ी हुई। किसी गहरी सोच में चलती हुई शाहनी के पीछे-पीछे मज़बूत क़दम उठाता शेरा चल रहा है। शंकित-सा-इधर उधर देखता जा रहा है। अपने साथियों की बातें उसके कानों में गूंज रही हैं। पर क्या होगा शाहनी को मारकर?
''शाहनी !''
''हां, शेरे।''
शेरा चाहता है कि सिर पर आने वाले ख़तरे की बात कुछ तो शाहनी को बता देमगर वह कैसे कहे?
''शाहनी।''
शाहनी ने सिर ऊँचा किया। आसमान धुएँ से भर गया था, ''शेरे।''
शेरा जानता है यह आग है। जबलपुर में आज आग लगनी थी, लग गयी! शाहनी कुछ न कह सकी। उसके नाते-रिश्ते सब वहीं हैं।
हवेली आ गयी। शाहनी ने शून्य मन से ड्योढ़ी में क़दम रक्खा। शेरा कब लौट गया, उसे कुछ पता नहीं। दुर्बल-सी देह और अकेलीबिना किसी सहारे के ! न जाने कब तक वहीं पड़ी रही शाहनी। दुपहर आयी और चली गयी। हवेली खुली पड़ी है। आज शाहनी नहीं उठ पा रही। जैसे उसका अधिकार आज स्वयं ही उससे छूट रहा है! शाहजी के घर की मालकिन...लेकिन नहींआज मोह नहीं हट रहा। मानो पत्थर हो गयी हो। पड़े-पड़े सांझ हो गयीपर उठने की बात फिर भी नहीं सोच पा रही। अचानक रसूली की आवाज़ सुनकर चौंक उठी।
''शाहनी-शाहनीसुनो ट्रकें आती हैं लेने?''
''ट्रकें...?'' शाहनी इसके सिवाय और कुछ न कह सकी। हाथों ने एक-दूसरे को थाम लिया। बात की बात में ख़बर गाँव भर में फैल गयी। नवाब बीबी ने अपने विकृत कण्ठ से कहा, ''शाहनीआज तक कभी ऐसा न हुआन कभी सुना। ग़ज़ब हो गयाअंधेर पड़ गया।''
शाहनी मूर्तिवत् वहीं खड़ी रही। नवाब बीबी ने स्नेह-सनी उदासी से कहा, ''शाहनीहमने तो कभी न सोचा था !''
शाहनी क्या कहे कि उसी ने ऐसा सोचा था। नीचे से पटवारी बेगू और जैलदार की बातचीत सुनाई दी। शाहनी समझी कि वक़्त आन पहुँचा। मशीन की तरह नीचे उतरीपर ड्योढ़ी न लाँघ सकी। किसी गहरीबहुत गहरी आवाज़ से पूछा, ''कौनकौन हैं वहाँ?''
कौन नहीं है आज वहाँसारा गाँव हैजो उसके इशारे पर नाचता था कभी। उसकी असामियाँ हैं जिन्हें उसने अपने नाते-रिश्तों से कभी कम नहीं समझा। लेकिन नहींआज उसका कोई नहींआज वह अकेली है! यह भीड़ की भीड़उनमें कुल्लूवाल के जाट। वह क्या सुबह ही न समझ गयी थी?
बेगू पटवारी और मसीत के मुल्ला इस्माईल ने जाने क्या सोचा। शाहनी के निकट आ खड़े हुए। बेगू आज शाहनी की ओर देख नहीं पा रहा। धीरे से ज़रा गला साफ़ करते हुए कहा, ''शाहनीरब्ब नू एही मंज़ूर सी।''
शाहनी के क़दम डोल गये। चक्कर आया और दीवार के साथ लग गयी। इसी दिन के लिए छोड़ गये थे शाहजी उसेबेजान-सी शाहनी की ओर देखकर बेगू सोच रहा है, ''क्या गुज़र रही है शाहनी पर! मगर क्या हो सकता है! सिक्का बदल गया है...''
शाहनी का घर से निकलना छोटी-सी बात नहीं। गाँव का गाँव खड़ा है हवेली के दरवाज़े से लेकर उस दारे तक जिसे शाहजी ने अपने पुत्र की शादी में बनवा दिया था। तब से लेकर आज तक सब फ़ैसलेसब मशविरे यहीं होते रहे हैं। इस बड़ी हवेली को लूट लेने की बात भी यहीं सोची गयी थी! यह नहीं कि शाहनी कुछ न जानती हो। वह जानकर भी अनजान बनी रही। उसने कभी बैर नहीं जाना। किसी का बुरा नहीं किया। लेकिन बूढ़ी शाहनी यह नहीं जानती कि सिक्का बदल गया है...
देर हो रही थी। थानेदार दाऊद ख़ां ज़रा अकड़कर आगे आया और ड्योढ़ी पर खड़ी जड़ निर्जीव छाया को देखकर ठिठक गया! वही शाहनी है जिसके शाहजी उसके लिए दरिया के किनारे ख़ेमे लगवा दिया करते थे। यह तो वही शाहनी है जिसने उसकी मंगेतर को सोने के कनफूल दिये थे मुँह दिखाई में। अभी उसी दिन जब वह 'लीगके सिलसिले में आया था तो उसने उद्दंडता से कहा था, ''शाहनीभागोवाल मसीत बनेगीतीन सौ रुपया देना पड़ेगा ! ''  शाहनी ने अपने उसी सरल स्वभाव से तीन सौ रुपये दिये थे। और आज...?
''शाहनी!'' ड्योढ़ी के निकट जाकर बोला, ''देर हो रही है शाहनी। (धीरे से) कुछ साथ रखना हो तो रख लो। कुछ साथ बाँध लिया हैसोना-चांदी।''
शाहनी अस्फुट स्वर से बोली, ''सोना-चांदी!'' ज़रा ठहरकर सादगी से कहा, ''सोना-चांदी! बच्चा वह सब तुम लोगों के लिए है। मेरा सोना तो एक-एक ज़मीन में बिछा है।''
दाऊद ख़ां लज्जित-सा हो गया। ''शाहनी तुम अकेली होअपने पास कुछ होना ज़रूरी है। कुछ नक़दी ही रख लो। वक़्त का कुछ पता नहीं।''
''वक़्त?'' शाहनी अपनी गीली आँखों से हँस पड़ी। ''दाऊद ख़ाँइससे अच्छा वक़्त देखने के लिए क्या मैं ज़िन्दा रहूँगी!'' किसी गहरी वेदना और तिरस्कार से कह दिया शाहनी ने।
दाऊद ख़ाँ निरुत्तर है। साहस कर बोला, ''शाहनी कुछ नक़दी ज़रूरी है।''
''नहीं बच्चा, मुझे इस घर से'' शाहनी का गला रुंध गया ''नक़दी प्यारी नहीं। यहाँ की नक़दी यहीं रहेगी।''
शेरा आन खड़ा गुज़रा कि हो ना हो कुछ मार रहा है शाहनी से। ''ख़ाँ साहिब देर हो रही है।''
शाहनी चौंक पड़ी। देर मेरे घर में मुझे देर ! आँसुओं की भँवर में न जाने कहाँ से विद्रोह उमड़ पड़ा। मैं पुरखों के इस बड़े घर की रानी और यह मेरे ही अन्न पर पले हुए...नहींयह सब कुछ नहीं। ठीक है देर हो रही है पर नहींशाहनी रो-रोकर नहींशान से निकलेगी इस पुरखों के घर सेमान से लाँघेगी यह देहरीजिस पर एक दिन वह रानी बनकर आ खड़ी हुई थी। अपने लड़खड़ाते क़दमों को संभालकर शाहनी ने दुपट्टे से आँखें पोछीं और ड्योढ़ी से बाहर हो गयी। बड़ी-बूढ़ियाँ रो पड़ीं। किसकी तुलना हो सकती थी इसके साथ! ख़ुदा ने सब कुछ दिया थामगर मगर दिन बदलेवक़्त बदले...
शाहनी ने दुपट्टे से सिर ढाँपकर अपनी धुंधली आँखों में से हवेली को अन्तिम बार देखा। शाहजी के मरने के बाद भी जिस कुल की अमानत को उसने सहेजकर रखा आज वह उसे धोखा दे गयी। शाहनी ने दोनों हाथ जोड़ लिए यही अन्तिम दर्शन थायही अन्तिम प्रणाम था। शाहनी की आँखें फिर कभी इस ऊँची हवेली को न देखी पाएँगी। प्यार ने ज़ोर मारा सोचाएक बार घूम-फिर कर पूरा घर क्यों न देख आयी मैंजी छोटा हो रहा हैपर जिनके सामने हमेशा बड़ी बनी रही है, उनके सामने वह छोटी न होगी। इतना ही ठीक है। बस हो चुका। सिर झुकाया। ड्योढ़ी के आगे कुलवधू की आँखों से निकलकर कुछ बन्दें चू पड़ीं। शाहनी चल दी, ऊँचा-सा भवन पीछे खड़ा रह गया। दाऊद ख़ाँशेरापटवारीजैलदार और छोटे-बड़ेबच्चेबूढ़े-मर्द औरतें सब पीछे-पीछे।
ट्रकें अब तक भर चुकी थीं। शाहनी अपने को खींच रही थी। गांववालों के गलों में जैसे धुंआ उठ रहा है। शेरेख़ूनी शेरे का दिल टूट रहा है। दाऊद ख़ाँ ने आगे बढ़कर ट्रक का दरवाज़ा खोला। शाहनी बढ़ी। इस्माईल ने आगे बढ़कर भारी आवाज़ से कहा, '' शाहनीकुछ कह जाओ। तुम्हारे मुँह से निकली असीस झूठ नहीं हो सकती!'' और अपने साफ़े से आँखों का पानी पोछ लिया। शाहनी ने उठती हुई हिचकी को रोककर रुंधे-रुंधे से कहा, ''रब्ब तुहानू सलामत रक्खे बच्चाख़ुशियाँ बक्शे...।''
वह छोटा-सा जनसमूह रो दिया। ज़रा भी दिल में मैल नहीं शाहनी के। और हमहम शाहनी को नहीं रख सके। शेरे ने बढ़कर शाहनी के पांव छुए, ''शाहनी कोई कुछ कर नहीं सका। राज भी पलट गया'' शाहनी ने काँपता हुआ हाथ शेरे के सिर पर रक्खा और रुक-रुककर कहा, ''तैनू भाग जगण चन्ना!'' (ओ चा/द तेरे भाग्य जागें) दाऊद ख़ाँ ने हाथ का संकेत किया। कुछ बड़ी-बूढ़ियाँ शाहनी के गले लगीं और ट्रक चल पड़ी।
अन्न-जल उठ गया। वह हवेलीनई बैठकऊंचा चौबाराबड़ा 'पसारएक-एक करके घूम रहे हैं शाहनी की आँखों में! कुछ पता नहीं ट्रक चल दिया है या वह स्वयं चल रही है। आँखें बरस रही हैं। दाऊद ख़ाँ विचलित होकर देख रहा है इस बूढ़ी शाहनी को। कहाँ जाएगी अब वह?
''शाहनी मन में मैल न लाना। कुछ कर सकते तो उठा न रखते! वक़्त ही ऐसा है। राज पलट गया हैसिक्का बदल गया है...''
रात को शाहनी जब कैंप में पहुँचकर ज़मीन पर पड़ी तो लेटे-लेटे आहत मन से सोचा 'राज पलट गया है...सिक्का क्या बदलेगावह तो मैं वहीं छोड़ आयी।...'
और शाहजी की शाहनी की आँखें और भी गीली हो गयीं!
आसपास के हरे-हरे खेतों से घिरे गांवों में रात ख़ून बरसा रही थी।
शायद राज पलटा भी खा रहा था और सिक्का बदल रहा था..

शनिवार, 2 मार्च 2019

हिन्दी मीमांसा प्रश्नोत्तर - 1

1. निम्नलिखित में से कौन - सा लेखक भारतेन्दु - मण्डल का नहीं है?
(1) प्रसाद नारायण मिश्र (2) बदरी नारायण चौधरी प्रेमघन (3)  बालकृष्ण भट्ट  (4) राजा लक्षमणसिंह।
उत्तर : (4) राजा लक्षमणसिंह।

2. 'रसकलस' किसकी रचना है?
(1) श्रीधर पाठक (2) अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध (3) गया प्रसाद शुक्ल सनेही (4) मैथिली शरण गुप्त ।
उत्तर : (2) अयोध्या प्रसाद सिंह हरिऔध।

3हमन है इश्क़ मस्ताना हमन को होशियारी क्या?
रहै आजाद या जग में हमन दुनियां से यारी क्या?’
इन काव्य-पंक्तियों के रचयिता हैं:
(A) अमीर खुसरो (B) नज़ीर अकबराबादी     (C) उसमान        (D) कबीरदास

4हिन्दू मग पर पांव न राख्यौ का बहुतैं जो हिन्दी भाख्यौ’ ये काव्य-पंक्तियां किस बोली में हैं?
(A) ब्रज  (B) भोजपुरी       (C) अवधी                     (D) बुन्देली

5. कुछ नाहीं का नाम धरि भरमा सब संसार।
संच झूठ समझे नहींना कुछ किया विचार
उपर्युक्त दोहा किस कवि का है?
(A) कबीरदास   (B) रहीम           (C) जायसी                     (D) दादूदयाल

6. कहा करौं बैकुंठहि जाय?
जहं नहिं नन्दजहां न जसोदानहिं जहं गोपी ग्वाल न गाय।
उपर्युक्त काव्य-पंक्तियां किसकी हैं?
(A) सूरदास        (B) परमानन्ददास                     (C) नन्ददास       (D) रसखान

7.  गगन हुता नहिं महि हुती हुते चंद नहिं सूर।
ऐसे अंधकार महं रचा मुहम्मद नूर ।।
यह दोहा जायसी की किस काव्य-कृति का है?
(A) पद्मावत       (B) अखरावट    (C) आखिरी कलाम          (D) कन्हावत

8कमलदल नैननि की उनमानि।
बिसरत नाहिंसखी! मे मन तें मंद-मंद मुसकानि।
उपर्युक्त काव्य-पंक्तियों के रचनाकार हैं :
(A) नन्ददास       (B) मीराबाई      (C) रहीम          (D) रसखान

9. गोरख भगायो जोगभगति भगायो लोग।
यह काव्य-पंक्ति किसकी है?
(A) गोरखनाथ    (B) कबीरदास     (C) तुलसीदास  (D) जायसी

10हिन्दू हृदय और मुसलमान हृदय आमने-सामने करके अजनबीपन मिटाने वालों’ में इन्हीं का नाम लेना पड़ेगा।
शुक्लजी का उक्त कथन किस कवि के संबंध में है?
 (A) कबीरदास    (B) जायसी       (C) रहीम           (D) रसखान       
   © हिन्दी मीमांसा 
संपादक- हिन्दी मीमांसा टीम 



मंगलवार, 1 जनवरी 2019

हरिशंकर परसाई का प्रसिद्ध व्यंग्य - नया साल
(कृपया पूरा लेख पढें.)
नया साल

साधो, बीता साल गुजर गया और नया साल शुरू हो गया। नए साल के शुरू में शुभकामना देने की परंपरा है। मैं तुम्हें शुभकामना देने में हिचकता हूँ। बात यह है साधो कि कोई शुभकामना अब कारगर नहीं होती। मान लो कि मैं कहूँ कि ईश्वर नया वर्ष तुम्हारे लिए सुखदायी करें तो तुम्हें दुख देनेवाले ईश्वर से ही लड़ने लगेंगे। ये कहेंगे, देखते हैं, तुम्हें ईश्वर कैसे सुख देता है। साधो, कुछ लोग ईश्वर से भी बड़े हो गए हैं। ईश्वर तुम्हें सुख देने की योजना बनाता है, तो ये लोग उसे काटकर दुख देने की योजना बना लेते हैं।

साधो, मैं कैसे कहूँ कि यह वर्ष तुम्हें सुख दे। सुख देनेवाला न वर्ष है, न मैं हूँ और न ईश्वर है। सुख और दुख देनेवाले दूसरे हैं। मैं कहूँ कि तुम्हें सुख हो। ईश्वर भी मेरी बात मानकर अच्छी फसल दे! मगर फसल आते ही व्यापारी अनाज दबा दें और कीमतें बढ़ा दें तो तुम्हें सुख नहीं होगा। इसलिए तुम्हारे सुख की कामना व्यर्थ है।

साधो, तुम्हें याद होगा कि नए साल के आरंभ में भी मैंने तुम्हें शुभकामना दी थी। मगर पूरा साल तुम्हारे लिए दुख में बीता। हर महीने कीमतें बढ़ती गईं। तुम चीख-पुकार करते थे तो सरकार व्यापारियों को धमकी दे देती थी। ज्यादा शोर मचाओ तो दो-चार व्यापारी गिरफ्तार कर लेते हैं। अब तो तुम्हारा पेट भर गया होगा। साधो, वह पता नहीं कौन-सा आर्थिक नियम है कि ज्यों-ज्यों व्यापारी गिरफ्तार होते गए, त्यों-त्यों कीमतें बढ़ती गईं। मुझे तो ऐसा लगता है, मुनाफाखोर को गिरफ्तार करना एक पाप है। इसी पाप के कारण कीमतें बढ़ीं।

साधो, मेरी कामना अक्सर उल्टी हो जाती है। पिछले साल एक सरकारी कर्मचारी के लिए मैंने सुख की कामना की थी। नतीजा यह हुआ कि वह घूस खाने लगा। उसे मेरी इच्छा पूरी करनी थी और घूस खाए बिना कोई सरकारी कर्मचारी सुखी हो नहीं सकता। साधो, साल-भर तो वह सुखी रहा मगर दिसंबर में गिरफ्तार हो गया। एक विद्यार्थी से मैंने कहा था कि नया वर्ष सुखमय हो, तो उसने फर्स्ट क्लास पाने के लिए परीक्षा में नकल कर ली। एक नेता से मैंने कह दिया था कि इस वर्ष आपका जीवन सुखमय हो, तो वह संस्था का पैसा खा गया।

साधो, एक ईमानदार व्यापारी से मैंने कहा था कि नया वर्ष सुखमय हो तो वह उसी दिन से मुनाफाखोरी करने लगा। एक पत्रकार के लिए मैंने शुभकामना व्यक्त की तो वह 'ब्लैकमेलिंग' करने लगा। एक लेखक से मैंने कह दिया कि नया वर्ष तुम्हारे लिए सुखदायी हो तो वह लिखना छोड़कर रेडियो पर नौकर हो गया। एक पहलवान से मैंने कह दिया कि बहादुर तुम्हारा नया साल सुखमय हो तो वह जुए का फड़ चलाने लगा। एक अध्यापक को मैंने शुभकामना दी तो वह पैसे लेकर लड़कों को पास कराने लगा। एक नवयुवती के लिए सुख कामना की तो वह अपने प्रेमी के साथ भाग गई। एक एम.एल.ए. के लिए मैंने शुभकामना व्यक्त कर दी तो वह पुलिस से मिलकर घूस खाने लगा।

साधो, मुझे तुम्हें नए वर्ष की शुभकामना देने में इसीलिए डर लगता है। एक तो ईमानदार आदमी को सुख देना किसी के वश की बात नहीं हैं। ईश्वर तक के नहीं। मेरे कह देने से कुछ नहीं होगा। अगर मेरी शुभकामना सही होना ही है, तो तुम साधुपन छोड़कर न जाने क्या-क्या करने लगेंगे। तुम गाँजा-शराब का चोर-व्यापार करने लगोगे। आश्रम में गाँजा पिलाओगे और जुआ खिलाओगे। लड़कियाँ भगाकर बेचोगे। तुम चोरी करने लगोगे। तुम कोई संस्था खोलकर चंदा खाने लगोगे। साधो, सीधे रास्ते से इस व्यवस्था में कोई सुखी नहीं होता। तुम टेढ़े रास्ते अपनाकर सुखी होने लगोगे। साधो, इसी डर से मैं तुम्हें नए वर्ष के लिए कोई शुभकामना नहीं देता। कहीं तुम सुखी होने की कोशिश मत करने लगना।
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आप हुदरी रमणिका गुप्ता NET/JRF

                          हिन्दी मीमांसा  आपहुदरी (आत्मकथा) -रमणिका गुप्ता मह्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर 1. लेखिका रमणिका गुप्ता का जन्म कब और ...